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[ अनिष्ट-प्रवृत्ति-सूत्र
टीका-लज्जा रहित जीवन और गुण रहित जीवन पृथ्वी पर भार-भूत है । इसलिये जीवन-विकास के लिये लज्जा शील और गुण शील होना चाहिये।
(९) अगुणप्पहीण आराहे संवरं ।
द०, ५, ४३, उ, द्वि टीका-गुणो को नही देखने वाला यांनी छल-छिद्र को और अवगणो को ही देखने वाला, सवर-धर्म का भागी नहीं हो सकता है, उसके लिये आश्रव अवस्था ही रहती है। उसकी आत्मा के साथ कर्मो का घोर बधन होता रहता है ।
(१०) - पूयणट्ठा जसो कामी,
वहुँ पसघई पायं।
। द०, ५, ३७, उ, द्वि० । टीका-पूजा की, यश की इच्छा करने वाला, बहुत पाप का भागी होता है, क्योकि पूजा, सन्मान और यश मे आसक्ति रहने से, कपट, कृत्रिमता, झूठ आदि नाना पापो के साथ घोर पतन प्रारम्भ हो जाता है। इसलिये पूजा-सन्मान की और यश-कीर्ति की कामना नही रखना चाहिये।
(११) - अयकरी अन्नेसी इंखिणी। ।
सू०, २,१, उ, २ . ' टीका-दूसरे की निन्दा करने की बुराई कल्याण का नाश करने वाली है। पर-निन्दा करने से राग-द्वेष की उत्पत्ति होती है. इससे कषाय-भाव पैदा होते है। इतालये पर-निन्दा करना आत्म घातक है और वह ससार को बढ़ाने वाली है।