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________________ सूक्ति-सुधा ] [ २४५ जो परिभवइ परं जणं, संसारे परिवत्तई महं। सू०, २, २, उ, २ टीका-जो पुरुष दूसरे का तिरस्कार करता है, जो दूसरे का अपमान करता है, वह ससार में चिर काल तक घूमता है, वह अनेक-जन्म और मरण करता है। . (१३) इंखिणिया उ पाविया। सू०, २, २, उ, २ टीका--पर निन्दा साक्षात् पाप की प्रति-मूत्ति है, पाप की निधि ही है। (१४) . दुस्सील पडिपीए मुहरी निक्कसिज्जई। उ०, १, ४ टीका-दुराचारी, प्रतिकूल वत्ति वाला और वाचाल प्रत्येक स्थान पर धिक्कारा जाता है । वह दुत्कारा जाता है । वह बहिष्कृत किया जाता है। (१५.) पडिणीप असबुद्धे अविणीए । . 'उ०. १, ३. टीका व्यवहार से और मर्यादा से प्रतिकूल वृत्ति वाला, तथा समझदारी यानी योग्यता नही रखने वाला अविनीत कहलाता है। 'बह विनय-शून्य कहा जाता है । वेराणुयद्धा नरयं उबैति । उ०, ४, २ .
SR No.010343
Book TitleJainagam Sukti Sudha Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanrushi Maharaj, Ratanlal Sanghvi
PublisherKalyanrushi Maharaj Ratanlal Sanghvi
Publication Year1950
Total Pages537
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size13 MB
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