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[ अनिष्ट-प्रवृत्ति-सूत्र टीका--जो अन्य जीवो से वैर बाधता है, जो हिंसा, कष्ट, पराधिकार-अपहरण आदि रूप वैर कार्य करते है, वे मर कर नरक मे उत्पन्न होते है । वे घोर-कप्ट प्राप्त करते है।
(१७) पमत्ते अगार मावसे।
आ०, १, ४५, उ, ५ . टीका--जो पुरुप साधु वेश धारण करके भी अर्थात् त्यागभावना का वेश धारण करके भी शब्द आदि इन्द्रिय-विषयो मे अनुरागी है, वह द्रव्य साधू है, वह दिखाऊ त्यागी है। ऐसा पुरुष तो भोगों में फसे हुए पुरुष के समान ही है। गृहस्थ-पुरुष के समान ही वह आरभी-समारभी है । वह पाप-पंक मे ही मग्न है ।
(१८) दोसं दुग्गइ वड़ढणं ।
द., ६, २९ टीका-दोष यानी आत्म-निर्बलता ही दुर्गति को बढाने वाली है। इसलिये आत्मा को मवल, निर्भय, साहसी और सेवा-मय बनाना चाहिये।
सप्पहासं विवज्जए ।
द०,८,४२ टीका-अत्यन्त हसना भी नहीं चाहिये। क्योकि अधिक हंसना असभ्यता का द्योतक है। यह गैर जिम्मेदारी को बढाने वाला होता है।
(२०)
जे इह आरंभ निस्सिया, आत दंडा।
सू०, २, ९, उ, ३