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सूक्ति-सुधा ] -
टीका-जो पुरुष यहाँ पर आरंभ-परिग्रह मे ही एवं स्वार्थपोषण मे ही रत रहते है, वे अपनी आत्मा के प्रति घोर अन्याय करते है, अपनी आत्मा के लिये वे नाना प्रकार का दुख संचय करते है।
(२१) मज्ज मंसं लसुणं च भोच्चा, अनत्थ वासं परिकप्पयंति ।
सू०, ७, १३ टीका-प्राणी मोह-वश, एव भोग वश, भक्ष्य-अभक्ष्य का विचार न कर, मद्य, मास लशुन आदि अभक्ष्य पदार्थों को भोग कर अपना ससार बढाया करते है । इन्द्रिय-तृष्णा पर क्या कहा जाय ? मनुष्य इन्द्रियो के दास बन कर नाना दुख उठाया करते है। .
(२२) रसाणुरत्तस्स नरस्त एवं, कत्तो सुहं होज्ज कयाइ किंचि ।
उ०, ३२, ७१ ___टीका-जो मनुष्य रात और दिन रसो में ही अनुरक्त है, उसको कभी भी कैसे सुख मिल सकता है।
( २३ ) दुक्खी मोहे पुणो पुणो।
सू० २, १२, उ, ३ टीका-दु.खी-प्राणी वार बार मोह को प्राप्त होता रहता है। वह बार बार भले और बुरे के विवेक से रहित होता रहता है। '
( २४ ) पावाई कम्माई करति रुद्दा, तिव्वामितावे नरए पडंति ।
सू०, ५, ३, उ, १