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सूक्ति-सुधा:
... (१०) निरुद्धगं वा वि न दीहरज्जा! .
सू०, १४, २,३, टीका-व्याख्याता पुरुष छोटी बात को भी शब्दों के आडम्बर से बडी नही बनावे । इसी प्रकार जो बात थोडे में कही जा सकती है या समझाई जा सकती है, उसे लम्बे चौडे वाक्यों द्वारा- यौर विस्तृत शब्दो द्वारा कभी नही कहे । क्योकि ऐसां व्याख्यान बलचि आदि दोषो को पैदा करने वाला होता है और इसमे सिवाय समय नप्ट करने के और स्व-विद्वत्ता-प्रकाशन के और दूसरा कोई मर्यसिद्ध नही होता है।
कोलावासं समासज्ज वितह पाउरे सए ।
आ०, ८, ३३, उ,८ , टीका-जैसे काठ का कीडा अपना घर वनाने में मशगल हो जाता है, और अन्ततोगत्वा घोर परिश्रम कर घर वना कर इसमें रहने लगता है, वैसे ही तत्वदर्शी पुरुष भी अपनी आत्मा की वास्तविकता को ढूंढने में और उसको प्राप्त करने में सदैव लगा है। जब तक आत्मा की परिपूर्णता प्राप्त नहीं हो जाय, तद तक निरन्तर ज्ञान की आराधना मे और अपने चारित्र को-अति उज्ज्वल करते मे लगा रहे । प्रत्येक क्षण कर्त्तव्य-मार्ग म लगन की दूता उत्तरोत्तर बढती ही चली जाय, ऐसा ही प्रयत्न रहे।
एगे जिए : जिया पंच, पंच जिए जिया दस।
उ०, २३,३६० टीका---एक के जीत लेने पर, पाचो को जीत लिया जाता है, और पाचो के जीत लेने पर दसो को जीत लिया जाता है
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