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( ६ ) विवत्ती श्रविणीश्ररूम, संपत्ती विणिस्स अ । द०, ९, २२ द्वि, उ,
टीका - अविनीत आत्मा को सदैव इस लोक दुख ही दुख मिलता है, तथा विनीत आत्मा को ओर पर लोक मे सुख ही सुख मिलता है ।
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( ७ )
गिहे दीव मपासंता, पुरिसा दागियानरा ।
सू०, ९, ३४
'टीका - भोगों में फँसे हुए रहने की हालत में न तो ज्ञान रूप दीपक के प्रकाश की प्राप्ति हो सकती है, और न चारित्र रूप द्वीप ही ससार - समुद्र की दृष्टि से प्राप्त हो सकता है । इसीलिये परमार्थ की आकाक्षा वाले पुरुष आध्यात्मिक पुरुषो की शरण लेते है ।
( ८ )
की लेहिं विज्यंति असाहु कम्मा ।
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[ प्रकीर्णक-सूत्र
सू०, ५, ९, उ, १
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टीका - पापी नाना प्रकार के दुख पाते है, नरक- आदि गति' मे कील आदि तीखे शस्त्रो से पीड़ित किये जाते है, परमं अधार्मिक देवता उन्हे घोर पीड़ा पहुँचाते है, ऐसा शास्त्रीय विधान है ।
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और पर लोक में सदैव इस लोक,
थति लुप्पंति तस्संति कम्मी ।
.. सू०, ७, २०
टीका - पाप कर्म करने वाले प्राणी पाप का उदय होने पर
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असह्य वेदना होने पर रोते है, तलवार आदि के द्वारा छेदन किये
जाते है और नाना विधि से डराये जाते है, भयभीत किये जाते है .