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व्याख्या कोष
१५-~-अमूढ
जो आत्मा विवेक और ज्ञान के बल पर अपनी इन्द्रियों और मन को विषय, विकार से हटा लेता ह आर निष्कपट रीति से जीवन के व्यवहार को चलाता है, वह "अमूढ" कहलाता है। १६---अमूर्त
.. जिन द्रव्यो में रूप, रस, गध, स्पर्श, नहीं पाया जाता है।
१७-अरति
क्रोध, मान, माया, लाभ और ईर्षा द्वेष के कारण से किसी पर भी घृणा, धिक्कार, बेपर्वाही, अरुचि आदि के भाव होना “अरति" है ।
१(--अरिहत जिनकी आत्मा पूर्ण विकास कर चुकी है, जो अखड और परिपूर्ण ज्ञान को प्राप्तकर चुके है , जा ईश्वर रूप हो चुके है, ऐसे असाधारण महात्मा "अरि-- हत' है । जैन-परिभाषा के अनुसार जिन्होने चार कर्मों का सर्वथा जड़ मूल से. नाश कर दिया है, वे "मरिहत" है ।
१९-अरूपी जो वर्ण से, गध से, रस से और स्पर्श से रहित है। ' २०-अलोक
सम्पूर्ण ब्रह्मांड का वह अनन्त और असीम शून्य स्थान, जहाँ कि जीव, पुद्गल आदि कोई द्रव्य नहीं है । इसे अलोकाकाश भी कहते हैं। ..
.२१-अवधिज्ञान : . . - । । ज्ञान का वह रूप है, जो कि आत्मा की शक्ति के आधार से ही इन्द्रियो और मन की सहायता नही लेते हुए भी कुछ मर्यादा के साथ तीनों काल के रूपी पुद्गलो को जान सके-समझ सके।
.. " -अवता । । । । । । ।
किसी भा कार का त्याग, प्रत्याख्यान अथवा मर्यादा नही फरना।
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