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सूक्ति-सुधा ]
टीका - जो मनुष्य धर्म की दान, शील, तप और भावना की आराधना किये बिना ही मृत्यु के मुख मे चला जाता है, वह परलोक में चिन्ता करता है, दुखी होता है ।
( २० )
जहा से दीवे असंहीणे एवं से धम्मे आरियपदे खिए ।
आ०, ६, १८४, उ, ३
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टीका——जैसे समुद्र के अन्दर मनुष्यो के लिए आधारभूत केवल दीप ही होता है, अथवा जैसे घोर अन्धकार में केवल दीपक ही प्रकाश देने वाला और मार्ग प्रदर्शक होता है, वैसे ही अगाध और अपरिमेय संसार-समुद्र में भी भव्य जीवों के लिये-आत्म-कल्याण के इच्छुक जीवो के लिये केवल वीतरागी महापुरुषो द्वारा उपदिष्ट धर्म ही आधार भूत है । इस वीतराग धर्म का आसरा लेकर ही भव्य जीव संसार-समुद्र से पार हो सकते है और अनत सुखमय, निराबाध शातिमय मोक्ष की प्राप्ति कर सकते है ।
( २१ )
आणाए मामगं धर्म |
आ०, ६, १८१, उ, २
टीका - आत्मार्थी यही समझे कि "भगवान की आज्ञा के अनूसार चलना ही मेरा धर्में है" । तदनुसार चारित्र धर्म में दृढ़ रहे और ज्ञान एव दर्शन का विकास करता रहे ।
( २२ )
श्रयरियं उसपज्जे । सू०, ८, १३