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[कपाय-मूत्र
(८) वेराणुवधीणि महळ्याणि । -
सू०, १०, २१ टीका-वासना और कपाय के वश होकर, भोगों से आकर्षित होकर, जीव वैर तो वाँव लेते है, परन्तु यह नहीं जानते है कि वैरबाँचना इस लोक और परलोक में महान भय पैदा करना है, महान् दु.ख मोल लेना है।
(९) वेराणुगिद्धे णिचयं करेति ।
सू०, १०, ९ टीका-जो प्राणी अन्य प्राणियों के साथ वैर-भाव रखता है, अति-स्पर्धा जनित राग-द्वेप के भाव रखता है, वह घोर पाप कर्म का उपार्जन करता है, वह चिकने कर्मों का बंध करता है।
(१०) माया मोसं विवज्जए।
द०, ५, ५१, २, द्वि. टोका-बुद्धिमान् अपने कल्याण के लिये, अणु-मात्र भी, थोड़ा सा भी माया-मृपावाद नही वोले यानी कपट पूर्वक झूठ मिथ्यात्व का पोपक है और मोक्ष का नागक है।
. (११) माया मित्ताणि नासेइ ।
द०, ८,३८ टीका-माया या कपट, मित्रता का नाग कर देता है । सम्यचत्व का भी कपट से नाम हो सकता है। कपट से विश्वास उठ जाता है।