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सूक्ति.सुधा]
(२२) आवज्जई इन्दिय चोर बस्से।
उ०, ३२, १०४ टीका--जो आत्मा इन्द्रिय-भोग रूपी चोरो के वश मे पड़ा हुआ __ है, उसका जन्म-मरण कभी वद नही होने वाला है, वह तो ससार मे परिभ्रमण करता ही रहेगा।
(२३) . जे दूमण ते हि णो णया, ते जाणंति सम हि माहियं ।
- सू०, २, २७, उ, २ . . टीका-मन को दुष्ट बनाने वाले जो शब्द-गध आदि विषय है, जो इन्द्रियो के सुख है, उनमे जो आत्माये आसक्त नही होती है, वे ही अपने में स्थित राग-द्वेष का त्याग कर, अनांसक्त होकर धर्मध्यान का असली रहस्य जानते ह या जान सकते है । इन्द्रिय सुखभोग और धर्म-ध्यान का आराधन-दोनो साथ २ नहीं हो सकते है।
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विहरेज्ज समाहि इदिए, अत्तहियं ख. दुहेण लन्भह ।
सू०, २, ३• उ, २ टीका-आत्महित का मार्ग, यानी वास्तविक कल्याण-मार्ग -बहुत ही कठिनाई से प्राप्त होता है । इसलिये इन्द्रियो को वश में रखो-। मन घोड़ा रूप है और इन्द्रियाँ लगाम रूप है-इसलिये लगाम द्वारा घोडे को नियत्रित रखना चाहिए। इस तरह समाधि के साथ सयम का अनुष्ठान करे।