SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 455
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ शब्दानुलक्षी अनुवाद ] · ७९९ - जैसे शक ( इन्द्र ) --- ३९१ देवताओ का अधिपति होता है, वैसे हो ८०० --- प्रत्यक्ष रूप से तप की ही विशेषता निश्चयपूर्वक देखी जाती हूँ, किसी भी जाति की विशेषता नही देखी जाती है । बहुश्रुत विद्वान् भी ( जनता में प्रमुख ) होता है । ८०१ - कर्म बीज सहित होता हुआ और विवश अवस्था में पड़ा हुआ प्रत्येक आत्मा सुन्दर अथवा पापकारी परभव को जाता है । ܐ -८०२ - (प्रत्येक आत्मा) कर्म के कारण से ही विपरीत स्थिति को प्राप् होता है । -८०३ --सत्य के पालन मे उपस्थित मेधावी ही कामदेव को जीतता है ८०४ - जिससे पाप का आगमन होता हो, तो सत्य होती हुई भी ऐसी वाणी नही बोलना चाहिये ८०५ -- सत्य हो, उसी मे पराक्रम बतलाओ । ८०६-- ( महापुरुप ) सत्य युक्त निर्दोष वाणी को ही वोलते हैं 4 ८०७ - सत्य में ही बुद्धि का सयोजित करो । ८०८-- सदैव स्वाध्याय में ही ' रत रहो । '८० मेघावी आज्ञा-पालन मे ही श्रद्धाशील होता है । ८१०–सात भय स्थान कहे गये हैं - इस लोक का भय, परलोक का भय, चोरी का भय, अम्म्मात् पैदा होनेवाला भय, वेदना भय, मृत्यु भय और अपकीर्ति का भय । ご ८११ - सात प्रकार से आयु टूटती है. -सकल्प विकल्प - से; निमित्त 7 कारण से, आहार से, वेदना से, पराघात से, स्पर्श से और 'श्वासोच्छ्वास से - 1 ८१२~सांत प्रकार के वचन विकल्प हैं. आलाप, अनालाप, उल्लाप अनुल्लाप, सलाप, प्रलाप और विप्रलाप । (+ ८१३ - मानव समाज, काम भोगो मे आसक्त है । ८१४--मनुष्य काम-भोगो में निश्चय ही आसक्त है । ادر 6)
SR No.010343
Book TitleJainagam Sukti Sudha Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanrushi Maharaj, Ratanlal Sanghvi
PublisherKalyanrushi Maharaj Ratanlal Sanghvi
Publication Year1950
Total Pages537
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy