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'शब्दानुलक्षी अनुवाद ]
[३४७. ४३५-यतना चार प्रकार की कही गई है ---द्रव्य से, क्षेत्र से, काल से - और भाव से। ४३६-जल्दी जल्दी, (उतावला उतावला) घव धब करके नही चले। ४३७– (आत्मार्थी) दिये जाने वाले निर्दोष आहार-पानी के अनुसं-.
. घान में रत रहते है। ४३८-सभी प्रकार के दानो में श्रेष्ठ दान “अभय दान” देना है। ४३९-मृत्यु होने पर स्त्री, पुत्र आदि साथ मे आने वाले नही है । ४४सम्यक् ष्टि वाला अपनी दृष्टि को (अपने विश्वास को) दूषित
नही करे। ४४१-विरोधी उपदेशो से निर्वेद अवस्था (उदासीनता) ग्रहण कर लो। ४४२-आर्य धर्म का आचरण करके अनेक महापुरुष दिव्य गति को
जाते है। ४४३-धर्म दीपक के समान है। ४४४ -यौवन अवस्था में साधु धर्म पालना अत्यन्त कठिन है। ४४५--भोगी, मृत्यु व्याधि और बुढामे से आकुल होते हुए बार बार
दुखो का अनुभव करते है । . ४४६--यहां पर प्राणी दुष्कृत्यो से ही दुखी होता है। ४४७-मोह ग्रस्त (प्राणी ) बार बार दुखी होता है । ४४८-नीतिवान् दुखो के आने पर भी ध्रुव रूप से स्थित रहे। ४४९-बार बार जन्म और वार वार मरण, ये ही दुःस्व के रूप है। '४५.—जिसको मोह नहा होता है, उसका दु,ख नष्ट हो गया '. , और.जिसको.तृष्णा नहीं सताती है, उसका मोह भी नष्ट हो।
गया है। . ४५१-कठिनाई से छोडने योग्य इन काम-भोगो को सदैव के लिये
- छोड दो।