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________________ गब्दानुलक्षी अनुबाद] [३०१ '९१-अलोलुप होता हुआ रसो में अनुगद्ध नहीं हो। ९२-वाल पुरुषो के ( मूब आदमियो के ) ननर्ग से वज्ञ करो, यानी - दूर रहो। ९३-सिद्ध प्रभु माम्वत् रूप से अव्याबाट सुद्ध का अनुभव करते रहते है। ९४--अव्यक्त भापा नहीं बोले । ५५~( महा पुरुप ) अपन गरीर के प्रति भी मनत्व भाव का आवरण नहीं करते है। ९६-~कपाय में सलग्न पापकर्मी दु ख का ही भागी है। ९७-अविनीत आत्माऐ दुग्व प्राप्त करती हुई ही देखी जाती है । । ९८ ब्रह्मचारी सौ वर्ष की आयुवाली स्त्री से भी दूर ही रहे। ९९-झूठ प्राणियो के लिये अविश्वान का स्थान है, अतएव झूठ को छोड दो। १.०-असम्यक्त्व का मानने वाले के लिये सम्यक्त्व और असम्यक्त्व, दोनो ही मिथ्यात्व रूप ही होते है । १.१-प्रज्ञावान् समयानुसार असावद्य निर्दोप और परिमित भाषा ही बोले । १०२---यह वाम नयोग अशाश्वत् है और दुख एक क्लेशो का ही भाजन है। १०३-~अमावु के धमो को-(नीच कर्तर्यो को) मत बोलो। १०४--तप आचरण करना तलवार की धारा पर चलना है.. निश्चय ही यह दुष्कर है। १०५-अगभ कर्मों का निदान (अतिम फल) पाप ही है। । १०६-दूनरो की निदा अश्रयम्कारी-(हानि प्रद) ही है। २०७-यह जीवन नष्ट हो जाने पर पुन नही जोडा जा सकने। योग्य है. उन इन्मे प्रमाद मत करो।
SR No.010343
Book TitleJainagam Sukti Sudha Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanrushi Maharaj, Ratanlal Sanghvi
PublisherKalyanrushi Maharaj Ratanlal Sanghvi
Publication Year1950
Total Pages537
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size13 MB
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