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शब्दानुलक्षी अनुवाद]
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• ८१५-आचार्य की भक्ति विचारपूर्वक वाणी में रही हुई है।
८१६--जिन वचनो में श्रद्धा करना, यही धर्म रुचि है। ८१७-पुन पुन श्रद्धा प्राप्त होना दुर्लभ है। . .
८१८-सदा जितेन्द्रिय और संयमशील होता हुआ मुनि निर्वाण की ।. . साधना करे। ८१९-शब्दो के विषय में आसक्त जीव अनेक प्रकार से त्रस स्थावर
जीवो की हिंसा करता है । , , ८२०~जो शब्दो मे तीन गृद्धि भाव रखता है, वह अकाल में ही
विनाश को प्राप्त होता है। ८२१-श्रद्धा परम दुर्लभ है। ८२२-शान्तिनाथ इस लोक में शान्ति करनेवाले है। .. ८२३--यहां पर काम-भाग में मूच्छित और आहार आदि सज्ञावाले
पुरुप-आश्रव सहित होते हुए-मोह को प्राप्त होते है । :.. ८२४-- हसीवाली ( पाप क्रिया को ) छोड़ दो। ८२५-जिन भगवान का कहा हुआ मार्ग ही सच्चा मार्ग ह, और
यही उत्तम मार्ग है। ८२६ सम्यक् दृष्टि सदैव अमूढ होता है। . . .. . ८२७-~-सम्यक्त्वदर्शी पाप नहीं करता है। ८२८-सुव्रती सर्वत्र समता रक्खे। . . . . . .८२९-समता से ही श्रमण होता है और ब्रह्मचर्य से ही ब्राह्मण
होता है। ८३०-ससार में शत्रु अथवा मित्र, सभी प्राणियो पर समता भाव . रक्खो । ८३१- हे गौतम । समय मर का भा प्रमाद मत करो। -८३२---( अवाछनाय पदार्थो के प्रति-) उपेक्षा के साथ समता धर्म के
- अनुसार अपनी आत्मा को प्रफुल्लित करो.1 - - :