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सूक्ति-सुधा]
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(८) भोगी भमइ संसारे, अभोगी विप्प तुच्चई।
उ., २५, ४१. - टीका-शब्द, रूप, रस, गव और स्पर्श के भोगो मे मच्छित भोगी जीव-ससार में एवं नाना योनियो में परिभ्रमण करता ही रहता है । उसका अनन्त जन्म-मरण बढ जाता है। किन्तु अभोगी जीव, अनासक्त आत्मा या विषय मुक्त आत्मा, बन्धन के चक्कर से और दु.खो के जाल से छूट जाता है—मुक्त हो जाता है।
जे गुणे से आवटे, .. जे आवट्टे"स गुणे।
आ०, १, ४१, उ, ५ टीका-जहाँ पाचो इन्द्रियो के भोग है, वहाँ ससार है। और जहाँ ससार है, वहाँ पांचो-इन्द्रियो, के भोग है । भोग और ससार का परस्पर में कार्य-कारण सम्बन्ध है,- सहयोग सम्बन्ध है, तदुत्पत्ति सम्बन्ध है ! भोगों के छोड़ने पर ही ससार का तथा सासारिक तृष्णा और व्यामोह का भी छुटकारा हो सकेगा । गुण यांनी भोग और आवट्ट यानी आवर्तन-सांसारिक जन्म मरण का चक्र। "
, पुणो पुणो गुणासाए,
वंके सेमायारे । - - - . आ०,१,४४,उ, ५ - - - - टीका--जो पुरुष बार बार इन्द्रियो के भोगो का आस्वादन करता है, भोगों में ही तल्लीन रहता है, वह असयमी है, वह पतित है, वह भ्रष्ट है । उसमें आत्म-वल, ज्ञान-बल, और कर्मण्यता-बल कभी भी विकसित नहीं हो सकते है, और जीवन में असयम के