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________________ - अन्दानुलक्षी अनुवाद ] १०:--असभ्रात होता हुआ, अठित-(अनासक्त) होता हुआ भोजन पानी की गवेषणा करे। १०९--जो दूसरो के माथ विषमता रखने वाला है, उसका मोक्ष नही हो सकता है। ११०-आसक्ति पूर्वक किसी भी ओर मत देखो। १११--अधर्मास्किाय का लक्षण ठहरने में सहायता देना है। ११२-अधर्म कार्य करने वाले की रात्रियाँ-दिन और रात निष्फल ही जाती है। ११३-पंडित-अधिकरण क्रिया का (शस्त्र अस्त्र सबवी क्रियामो को) नही करे। ११४-अपनी आत्मा के समान ही प्राणियो को देखो को अथवा समझो। ११५---अहिंसा, निपुण यानी अनेक प्रकार के मुख को देने वाली देखी गई है। ११६-~परिपूर्ण पाचो इन्द्रियो की स्थिति प्राप्त होना दुर्लभ है। ११७ ---क्रोध से नीचे की गति को जाता है, और मान से अवम गति प्राप्त होती है। ११८-अहा ! (हर्प है कि)] जिन द्वारा (अरिहत-तार्थ करो द्वारा) साधुओ की वृत्ति असावध कही गई है। ११९-~भगवान की आज्ञानुसार शुद्ध वचनो का ही उच्चारण करो। १२०-आज्ञानुसार अच्छी तरह से नि सगय पूर्वक (तत्वो को) जान कर (तदनुसार कार्य करने वाले के लिये) कही पर भी भय नही रहता है। १२१-~आज्ञानुसार चलना ही मेरा वर्म है। . १२२---आत्मा को गोपने वाला, सदा इन्द्रियो का दमन करने वाला, शोक से रहित और आश्रव से रहित (ही. महापुरुष होता है)।
SR No.010343
Book TitleJainagam Sukti Sudha Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanrushi Maharaj, Ratanlal Sanghvi
PublisherKalyanrushi Maharaj Ratanlal Sanghvi
Publication Year1950
Total Pages537
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size13 MB
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