________________
शन्दानुलक्षी अनुवाद ]
[ ३८७
-३६६ - जिस आत्मा को को ज्ञान, दर्शन, चारित्र में सकाऐं उत्पन्न हो जाती 7 हैं, ऐसी आत्मा समाधि नही प्राप्त कर सकती है ।
+
७६८ - जो धन में और स्त्रियो में गृद्ध हो जाता है, वह इस लोक और ७५ परलोक दोनो ओर से कर्म- मल को संचय करता है ।
-७६९ – प्रमादी घन से शरणभूत रक्षा नहीं प्राप्त कर सकता है ।
७७० ह
- यह धन, पशु और जाति जन मेरे शरण रूप रक्षक है, ऐसा चाआत्मा (मूर्ख जन ) ! मानता है ।
७७१ – ये सब विघ्वस धर्म वाले है, ऐसा जानता हुआ कौन भोंग रूप घर में रहेगा ? K
७७२ - प्रमाद नही करना चाहिए ।
७७३ – अपेक्षा वाली - स्याद्वाद वाली भाषा बोलनी चाहिए'।
७७४—तीव्र बुद्धि वाला समयानुसार व्याख्या करे ।
७७५ --- वघ से --- ( हिंसा ) विरक्त होवे |
७७६-जैसे सूखे गोले पर कुछ चिपक नही सकता है, वैसे ही विरक्त आत्माएँ कर्म मल से संलग्न नहीं हुआ करती' हैं ' .
७७७ - स्नान आदि शृंगारिक कार्यों से और स्त्रियों से विरक्त रहो । '७७८—अविनीत के लिये विपत्तिया है और विनीत के लिये सपत्तियाँ है ।
७७९ -मुनियो के लिए एकान्त वास ही प्रशसनीय है ।
७८० -- जो विषयो का, भोगो का ध्यान किया करते है, वे कक पक्षी के समान पापी और अधम, है ।
-
७८१ – मनोज विषयो में मोह का अभिनिवेश मत करो । मोहग्रस् मत होओ ।
- . ७८२ -- विषयो में लीन आत्माऐं विषयों के कारण से दोनों ही लोक में विविध रीति से दुखी होती है ।