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ज्ञान-सूत्र
एगे नाणे।
ठाणाग, १ ला, ठा, ४२ . - टीका-आत्मा का लक्षण ज्ञान वताया गया है । आत्मा एक अखंड द्रव्य है, स्वतत्र सत्ता वाला अरूपी द्रव्य है, । तदनुसार उसका लक्षण यानी धर्म भी अखड और स्वतन्त्र ही है। ज्ञान-गक्ति प्रत्येक आत्मा मे अखड रूप से और अपने आपमें परिपूर्ण रूप से. व्याप्त है। ___ससार में विभिन्न जीवो मे,जो ज्ञान के भेद या परस्पर मे जो ज्ञान की विभिन्नता पाई जाती है, उसका मूल कारण आत्मा मे संलग्न कर्म परमाणु है, जैसे सूर्य के प्रकाश में वादलो के कारणः से छाया और प्रकाश की तारतम्यता देखी जाती है, उसी तरह से कर्मो के भेद से या कर्मों की विषमता से ससारी आत्माओ के ज्ञान में भी भेद पाया जाता है। परन्तु मूल में सभी आत्माओ में समान, परिपूर्ण, अखड और एक ही ज्ञान अवस्थित है, किसी मे भी कम या अधिक नही है, अतएव यह कहना कि. "ज्ञान एक ही है" सत्य है।
(३) “पढमं नाणं तो दना।
द०, ४, १० टीका-प्रथम सम्यक् ज्ञान प्राप्त करना चाहिये। इसके बाद की जाने वाली निया सम्यक् है, ठीक है। यही मोक्ष-मार्ग