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हा उपदेश-सूत्र
( ६७ ). . हसंतो नाभिगच्छेजा।
द०, ५, १४, उ, प्र टीका-हसते हुए भी । नहीं. चलना चाहिये, क्योकि यह असभ्यता का चिह्न माना जाता है। , . ,
, . (६८ ) . . दव दवस्ल न गच्छेज्जा।
___ द०, ५, १४, उ, प्र टीका-जल्दी जल्दी अविवेक-पूर्वक नही चलना चाहिये। क्योकि इससे हिंसा अथवा ठोकर लगने का भय रहता है। .
अकप्पियं न गिहिज्जा ।
द्र०, ५, २७, उ, प्र._____टीका--अकल्पनीय और मर्यादा के प्रतिकूल वस्तुओ की न्ही ग्रहण करना चाहिये । 'मर्यादा-भग ही पाप है ! इससे आसक्ति, आदि नाना विकारो के उत्पन्न हो जाने की सभावना रहती है।
कुज्जा साहूहिं सथवं! . .. . .
द०, ८,५३ टीका-साधुओ, के साथ, सज्जन और पर-उपकारी महा पुरुषो के साथ, सेवा-भावी नर-रत्नो के साथ परिचय करना चाहिये, उनकी संगति करना चाहिये। ''
(७१) अणावाह सुहाभिकेखी
गुरूप्पसायाभिमुहो रमिज्जा।
द०, ९, १० प्र, उ,