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सद्गुण-सूत्र
टीका - आत्मा की शांति चाहने वाला अलोलुप होता हुआ इन्द्रियो के रसो मे, इन्द्रियो के भोगो के स्वादो में आसक्त न बने - विषयो मे मूच्छित न हो । वासनाओ मे गृद्ध न हो जाय ।
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जे आसवा ते परिस्सवा..
जे परिस्वा ते आसवा ।
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आ०, ४, १३१ उ, २
टीका- जो आश्रव के स्थान है, वे ही भावो की उच्चता के कारण सवर- निर्जरा के स्थान भी हो सकते है । इसी प्रकार जो सवर - निर्जरा के स्थान है, वे ही भावो की, नीचता और दुष्टता के कारण आश्रव के स्थान भी हो जाया करते है । इन सब में मूल कारण भावो की या भावना की विशेषता है । जैसी भावना वैसा फल । बाह्य स्थिति कैसी भी हो, आतरिक स्थिति पर ही सब कुछ निर्भर है । अतएव सदैव शुद्ध भावना ही रखनी चाहिये ।
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7 - :, (१४.) श्रवट्टे तु पेहाए इत्य विरभिज्ज वैयंषी ।" आ०, ५, १७०, उ, ६
टीका - राग द्वेष, कषाय, विषय और विकार के चक्र का ख्याल कर, संसार - परिभ्रमण का विचार कर, तत्वदर्शी ज्ञानी इन कषायों से, इन विषयों से, इन वासनाओ से, अपनी आत्मा को वचावे । जीवन 'को निर्मल, निष्कषायीं और अनासक्त बनावे !
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मेहावी जाणिज्ज धम्म ।
आ.० ६, १८८, उ, ४
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