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सूक्ति-सुधा]
[१०५ . टीका--जिसकी तृष्णा नष्ट हो गयी है उसको लोभ नही सताता है, और जिसके हृदयसे लोभ चला गया है उसको किसी भी बात पर, पदार्थ पर एवं भोग पर, आसक्ति या ममता नही रहती है । आनन्द की प्राप्ति के लिये तृष्णा का नाश सर्व प्रथम आवश्यक है ।
श्रोमासणाणं दमिइन्दियाणं, न'राग सत्तू धरिसेइ चित्तं ।
उ०, ३२, १२ . टीका-परिमित और अल्प आहार करने वाले कोतथा इन्द्रियो का दमन करने वाले के चित्त को राग-रूप शत्रु-आसक्ति रूप दुश्मन और ममता रूप वैरी दुख नही देता है।
(१०). - संगाम सीसे व परं दमेज्जा।
टीका. -कर्मण्य पुरुष अपनी मानसिक दुर्वत्तियो का इस प्रकार दमन करे जैसा कि वीर-पुरुष युद्ध क्षेत्रमें प्रति पक्षी शत्रु का दमन करता है, और उसपर विजय प्राप्त करता है । मानसिक दुर्वृत्तियो 'पर विजय प्राप्त करने में ही पुरुषत्व की शोभा रही हुई है ।
. (११) : __ अप्पमत्तो.परिवए। - अप्पमत्ता.पा
.. . .-'. . उ०, ६, ३. _',टीका--जीवन के विकास के लिये अप्रमत्त होता हुआ, निश्चित होता हुआ, आशा रहित होता हुआ, और निद्वंद्व होता हुआ अपना वन व्यतीत करे।
(२२) अलोलुए रसे सुनाणुगिज्झेज्जा।
.: उs,२,३९