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________________ शब्दानुलक्षी अनुवाद] ७३६-समनोज्ञ ( रमणीयता ). राग का हेतु कहा गया है, पर अमनोज्ञ द्वेष का हेतु कहा गया है। ७३७-राग और द्वेष ही कर्म के बीज है।। ७३८-रत्नाधिक पुरुपो के प्रति ( ज्ञान दर्शन और चारित्र मे वृद्ध '.. पुरुषो के प्रति ) विनय रखना चाहिए। । ७३९-रूप मे विरक्त एव शोक रहित मनुष्य ससार में रहता हुआ भी लिप्त नही होता है। ७४० --जो रूप में तीब्र गृद्धि रखता है, वह अकाल में विनाश को प्राप्त होता है। । ७४१-भय लाने वाले रूप द्वारा ही प्राणी लुप्त होते है, विनाश को प्राप्त होते है। ७४२-ज्ञातपुत्र महावीर के वचन में रुचि लाकर जा पाचो आश्रवो का सवर करता है, वहा भिक्षु है । - १७४३-कल्याण की कामना वाले के लिये लज्जा, दया, सयम और ब्रह्म चर्य विशुद्धि के स्थान है । ७४४-- ( विवेकी ) भोगो के प्राप्त होने पर भी उनकी बाछा नही करे। । ७४५-प्राप्त भोगो से भी जो मुख मोड लेता है, वही सच्चा त्यागी है। १७४६-मूढ़ आत्माएँ अनेक वार इस अनत ससार में लुप्त होती रहती है। ७४७-~-( अशुभ ) लेश्या का परिहार करके सयम शील होवे । ७४८-श्रमण ज्ञातपुत्र महावीर लोक में उत्तम है। ७४९... इस सपूर्ण लोक को दो रूप में समावेश किया जा सकता है -जीव और अजीव । ७५०-लोभ को सतोप से जीते । ७५१ --लोभ सव का विनाश करने वाला है।
SR No.010343
Book TitleJainagam Sukti Sudha Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanrushi Maharaj, Ratanlal Sanghvi
PublisherKalyanrushi Maharaj Ratanlal Sanghvi
Publication Year1950
Total Pages537
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size13 MB
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