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[अहिंसा-सूत्र
____टीका न तो हिंसा खुद करे और न दूसरो से करावे । हिंसा इस लोक मे और पर-लोक में सर्वत्र दुःख देने वाली है।
तसे पाणे न हिसिज्जा ।
द०, ८, १२ टीका-~त्रस-प्राणियो की, निरपराध जीवो की दो इन्द्रिय से लगा कर पच इन्द्रिय तक के जीवो की हिंसा नहीं करना चाहिये । हिसा के बराबर मोटा और कोई पाप नही है। दया से वढकर और कोई धर्म नहीं है । अहिसा, दया, करुणा, अनुकंपा ही सभी धर्मों का सार है, मक्खन है । अहिंसा हमारे जीवन का प्रमुख अग होना चाहिये।
सव्वे पाणा पियाउया।
आ०, २, ८१, उ, ३ टीका-सभी प्राणियो को अपनी आयुष्य प्रिय है। कोई भी प्राणी दुख अथवा मृत्यु नही चाहता है। अतएव दया ही सर्वोत्तम धर्म है। यही सभी धर्मों का निष्कर्ष है।
सम्वेसिं जीवियं पियं
आ०, २, ८१, ३,३ टीका--सभी प्राणी जीवित रहना चाहते है। सभी को अपना जीवन प्यारा है, चाहे वे किसी भी स्थिति में क्यो न हो । अतएव ' पर-पीड़ा पहुंचाने के समान कोई पाप नही है, और पर-सेवा के समान अथवा दूसरे को गाति पहुंचाने के समान कोई पुण्य नही है ।