________________
सूक्ति-सुधा ]
रणीय नही है । बाह्य-उच्चता कृत्रिम उच्चता है । गुण- उच्चता हृ
वास्तविक उच्चता है |
'me
(२४) मज्झत्थो निज्जरापेही, समाहि मणुपालए ।
आ०, ८, २१, उ, ८
टीका—विपरीत परिस्थिति मे भी मध्यस्थ होता हुआ, निर्जख की आराधना करता हुआ, विभिन्न प्रकार के तपो का पालन करता हुआ, ज्ञानी पुरुष समाधि की और स्थिति प्रज्ञ भावना की सम्यकू प्रकार से परिपालना करे । वह धर्म पर दृढ रहे । मति को चंचळ और चपल नही होने दे । वह कर्त्तव्य से पतित न हो ।
(२५)
मई
चविहे पायच्छित्ते, पाणपायच्छित्ते, दंसण पाय च्छित्ते,
चरि पायच्छिते, वियत्त किच्चे पायच्छित्ते ।
ठाणा०, ४था, ठा, उ, १, ३३
टीका -- चार प्रकार के प्रायश्चित्त कहे गये है- १ ज्ञान प्रायश्चित्त २ दर्शन प्रायश्चित्त, ३ चारित्र प्रायश्चित्त और ४ व्यक्त कृत्य प्रायश्चित्त । १ ज्ञान की आराधना करके पापो की शुद्धि करना ज्ञान प्रायश्चित्त है । २ दर्शन की या श्रद्धा की विशुद्धि करके पापो का प्रायश्चित्त करना दर्शन प्रायश्चित्त है । ३ निर्मल चारित्र की आराघना करके पापो का पश्चाताप करना चारित्र प्रायश्चित्त है । ४ अनासक्त और पूर्ण गीतार्थ होकर, एव असाधारण विद्वान् वनकर पा का प्रायश्चित्त करना व्यक्त कृत्य प्रायश्चित्त है ।