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तप-सूत्र
टीका--प्रायश्चित्त करने से.-अपने द्वारा कृत अपराधों के लिए और ग्रहित व्रतों मे आये हुए दोपो के लिये निन्दापूर्वक आलोचना करने से, एव पश्चात्ताप करने से पाप कर्मो का क्षय होता है और आत्मा की विशुद्धि होती है।
(२१) चेया वच्चेणं तित्थयरनाम गोत्तं कम्मं निवन्धः ।
उ०, २९, ४३ वाँ, ग० टीका-वैयावृत्य करने से, साधु, साध्वी, थावक और श्राविकाओ की, चतुर्विध श्री सघ की सेवाशुश्रुपा करने से, इन्हे साता पहुँचाने से, तीर्थंकर नाम कर्म का और उच्च गोत्र कर्म का बन्ध पडता है । इस रीति से मोक्ष-स्थान अति निकट आ जाता है।
(२२) आलोयणाप उज्जु भावं जगया।
उ०, २९, पा० ग० ___टीका-आलोचना से और पाप का प्रायश्चित्त करने से सरलता आती है, निष्कपटता पैदा होती है । इससे आत्मवल बढता है एव चारित्र में प्रगति होती है।
(२३) साखं खुदीसइ तवो विलेलो, ‘न दीलइ. जाइ विसेस कोई ।
उ०, १२, ३७ टीका-तप की और सयम प्रधान सदगुणो की ही विशेपता और आदर-दृष्टि प्रत्यक्ष रूप से देखी जाती है । जाति-कुल-कुटुम्ब यादि की विशेषता अथवा उच्चता गुणो के अभाव में जरा भी आद