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शब्दानुलक्षी अनुवाद]
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। ८७९-सिद्ध आत्माओ का सुख अव्यांवाघ ( निरन्तर बाधा रहित ) , होता है। ८८०-सिद्ध प्रभु शाश्वत् ( नित्य, अक्षय ) होते है । ८८१ --अज्ञानी, मूर्ख दुखी होते है। ८८२-~~-अनेकानेक मनुष्य कायर होते हुए दु.खी होते हैं । ८८३-जैसे सिंह मृगो में श्रेष्ठ होता है वैसे ही बहुश्रुत व्यक्ति (जनता
में श्रेष्ठ ) होता है। ८८४-(आत्म-हितपी) ज्ञान प्राप्त हो जाने पर अहकार नहीं करे । ८८५-धर्म सुनने का प्रसग मिलना दुर्लभ है। ८८६---अमुनि सोये हुए है और मनि सदैव जागृत है । ८८७-(मेवा व्रती)सुदुर्लभ बोधि लाभ की प्राप्ति के लिये (सम्यक ज्ञान
की प्राप्ति के लिये ) विचरे। ( ज्ञान-प्राप्ति का प्रयत्न करे)। ८८८-शुद्ध आत्मा ( कर्म रहित आत्मा ) मोक्ष को प्राप्त करती है । ८८९-परापकारी अच्छी तरह से शद्ध हाता हुआ समय व्यतीत करे
आर दूषित नही होवे। ८९०-सुपरित्यागी इन्द्रिय-दमन रूप धर्म का आचरण करे । ८९१-सुब्रह्मचर्य रूप धर्म में (ब्रह्मचारी) रहे। (ब्रह्मचर्य का पालन करे) ८९२-श्रुत-शास्त्र का अध्ययन करके ( ज्ञान में सुस्थित हो करके )
उत्तम अर्थ की (मोक्ष की) गवेषणा करे; (अनंतता की)
खोज करे। ८९३, जो श्रुत-जान की आराधना से अज्ञान का नाश करता है, वह ., . सक्लेश नहा प्राप्त करेगा।
८९४-विपुल श्रुत ज्ञान से पूर्ण, स्वपर रक्षक महात्मा कर्म को क्षय ,, ...,करके उत्तम गति को प्राप्त हुए है। ,८९५ --सुबती ममितियो का परिपालन करता हुआ विचरे । , १८९६ सुविनीत आत्मा सुख प्राप्त करती हुई देखी जाती है ।