________________
[२१३
सूक्ति-सुधा ]
टीका-जो विपय लोलप है, और जो तृष्णा मय आरंभ कार्यों से भरे हुए है, ऐसे पुरुष दुःखो से यानी आठो कर्मो के जाल से मुक्त होने वाले नही है । वे तो कोल्हूं के बैल के समान निरन्तर संसार में ही चक्कर लगाते रहेगे।
(३५)
अणुवसन्तेणं दुक्कर दमसागरो।
उ०, १९, ४३ टीका-जिस आत्मा की कषाय वृत्ति शान्त नही है, ऐसी आत्मा से दम रूप समुद्र का यानी इन्द्रिय-दमन रूप सागर का-तैरा जाना दुष्कर है । ससार से मुक्ति पाने के लिये कषायो पर विजय प्राप्त करना सर्व प्रथम आवश्यक है।।
अवि प्रोसिए धासति पावकम्मी।
सू., १३,५ टीका-कलह आदि कषाय मे और ईर्षा-द्वेष में सलग्न पुरुष अधम है, वह पाप कर्मी है, और दु ख का ही भागी है।
( ३७ ) - जो विग्गहीए अन्नाय भासी, न से समे होइ अझंझपत्ते ।
सू०, १३, ६ टीका-जिस पुरुष की वृत्ति ही झगडा करने की हो गई है, तथा जो न्याय को छोड़कर बोलता है, यानी अनीति पूर्वक भाषण करता है, ऐसा पुरुष राग और द्वेष से युक्त होने के कारण समता धर्म नही प्राप्त कर सकता है, वह शाति का अनुभव नही कर सकता है और न कलह से ही उसका छुटकारा हो सकता है।