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शब्दानुलक्षी अनुवाद
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४२३-मन, वचन और काया करके भी प्राणियों को मत-मारो। ४२४-भगवान ने तीन प्रकार का धर्म फरमाया हो-१ सम्यक् प्रकार . .से सूत्र आदि का अध्ययन, २ सम्यक प्रकार से ध्यान और
३ सम्यक् तप । ४२५-- "तू ! तू । ऐसा अमनोज्ञ" शब्द किसी भी रूप से मतं बोलो।
४२६---जो महान् कुल से निकले हुए है, (लेकिन जिनका ध्येय अपनी , ' , यश कीर्ति, और पूजा प्रतिष्ठा ही है तो) उनकी तपस्या शुद्ध - नहीं है। ४२७-वह स्थान शाश्वत् निवास वाला है, जिसको प्राप्त करके शोक . रहित हो जाते है ।
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४२८–जो अहंकारी है, जो लोभी है, जो स्वछद इन्द्रियो वाला है, वह - अविनीत है। ४२९- पाप कर्मी अत में रोते हैं, छेदे जाते है और दुःखी किये जाते है। ४३४- अहकार से, क्रोध से, प्रमाद से, रोग से और आलस्य से ज्ञान
1 प्राप्त नहीं हो सकता है। "४३१-ईश्वरीय प्रार्थना-स्तुति रूप मगल से ज्ञान दर्शन चारिश रूप __ . बोध का प्राप्ति होती है। . . ४३२--स्त्री-कथा को सर्वथा छोड दो। .
४३३----यह पापी आत्मा पाप कर्मों द्वारा आग से जलाया गया, पकाया
' गया और दुःख झेलने के लिये विवश किया गया । ०४३४-मेघावी दया धर्म के लिये क्षमा-शील होता हुआ अपनी आत्मा • , . को प्रसन्न करे।