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________________ शब्दानुलक्षी अनुवाद [.३.४५ ४२३-मन, वचन और काया करके भी प्राणियों को मत-मारो। ४२४-भगवान ने तीन प्रकार का धर्म फरमाया हो-१ सम्यक् प्रकार . .से सूत्र आदि का अध्ययन, २ सम्यक प्रकार से ध्यान और ३ सम्यक् तप । ४२५-- "तू ! तू । ऐसा अमनोज्ञ" शब्द किसी भी रूप से मतं बोलो। ४२६---जो महान् कुल से निकले हुए है, (लेकिन जिनका ध्येय अपनी , ' , यश कीर्ति, और पूजा प्रतिष्ठा ही है तो) उनकी तपस्या शुद्ध - नहीं है। ४२७-वह स्थान शाश्वत् निवास वाला है, जिसको प्राप्त करके शोक . रहित हो जाते है । . . . . ४२८–जो अहंकारी है, जो लोभी है, जो स्वछद इन्द्रियो वाला है, वह - अविनीत है। ४२९- पाप कर्मी अत में रोते हैं, छेदे जाते है और दुःखी किये जाते है। ४३४- अहकार से, क्रोध से, प्रमाद से, रोग से और आलस्य से ज्ञान 1 प्राप्त नहीं हो सकता है। "४३१-ईश्वरीय प्रार्थना-स्तुति रूप मगल से ज्ञान दर्शन चारिश रूप __ . बोध का प्राप्ति होती है। . . ४३२--स्त्री-कथा को सर्वथा छोड दो। . ४३३----यह पापी आत्मा पाप कर्मों द्वारा आग से जलाया गया, पकाया ' गया और दुःख झेलने के लिये विवश किया गया । ०४३४-मेघावी दया धर्म के लिये क्षमा-शील होता हुआ अपनी आत्मा • , . को प्रसन्न करे।
SR No.010343
Book TitleJainagam Sukti Sudha Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanrushi Maharaj, Ratanlal Sanghvi
PublisherKalyanrushi Maharaj Ratanlal Sanghvi
Publication Year1950
Total Pages537
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size13 MB
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