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[ महापुरुप सूत्र
और न दुख से दीन हो । दीनता और हीनता से आत्मार्थी
सदैव दूर रहे |
( ३२ ) उणी सयई सिंयं रय, एवं कम्मं खवइ तवस्सिमाहणे ।
सू० २,१५, उ, १
टीका -- जैसे पक्षिणी अपने शरीर में लगी हुई धूल को गिरा देती है, उसे झाड देती है, उसी तरह से तपस्वी महात्मा भी अपने पूर्व-कृत कर्मों को अपने सत्कार्यो द्वारा झाड़ देते है, उन्हे अलग कर देते है ।
( ३३ ) - चिच्चा वित्त च णायओ, आरंभं च सुसंवुढे चरे । सू० २,२२, उ, १
टीका -- आत्मार्थी के लिये यही सुन्दर मार्ग है कि धन, ज्ञातिवर्ग, माता-पिता आदि को और आरंभ - परिग्रह को छोड़ कर उत्तम सयमी वन कर जीवन व्यवहार चलावे ।
( ३४ )पूया पिट्टतो कता, ते ठिया सुसमाहिए ।
सू०, ३, १७, उ, ४
टीका — जिन्होने स्व-पूजा, अपनी यग. कीर्ति, सन्मान आदि की इच्छा का त्याग कर दिया है, वे ही सुसमाधि मे स्थित है ऐसे ही पुरुषो की इन्द्रियां और मन उनके वश में है ।
( ३५ ) सुन्वते समिते चरे । सू, ३, १९, उ, ४