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मान्यताओ का परित्याग करते हुए और भगवान महावीर स्वामी के शासनचल में प्रविष्ट होते हुए देखे गये ।
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, यज्ञ-प्रणालि में हिंसा-अहिंसा की मान्यता में वर्ण व्यवस्था में, और दार्शनिक सिद्धान्त में आमूल-चूल परिवर्तन देखा गया, यह सब महिमा केवल ज्ञातपुत्र, निग्रंथ, श्रमण भगवान महावीर स्वामी की कडक तपस्या, और गंभीर दर्शनिक सिद्धान्ती की है ।
जैन धर्म और जैन दर्शन को किन्तु वह अगफल रही। इस परिपूर्णता का, स्वतंत्रता
वैदिक सभ्यता ने मध्य युग में भी सत्म करने के लिये भारी प्रयत्न किये, प्रकार हर आत्मा की अखंडता का व्यापकता का, का और स्व-आश्रयता का विधान करके जैन दर्शन विश्व - साहित्य में "अत्मवाद और ईश्वरवाद 'सबधी अपनी मौलिक विचार-वारा प्रस्तुत करता है, जो कि मानव - सस्कृति को महानता की ओर बढाने वाली है । अनएव यह शुभ, प्रशस्त और हितावह है ।
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स्याद्वाद
दार्शनिक सिद्धान्तो के इतिहास में स्याद्वाद का स्थान सर्वोपरि है । स्याद्वाद का उल्लेरा सापेक्षवाद, अनेकान्तवाद अथवा सप्तभगीवाद के नाम से भी किया जता है । विविध और परस्पर में विरोधी प्रतीत होने वाली मान्यताओ का ओर विपरीत तथा विधानक विचार श्रेणियों का समन्वय करके सत्य की गोत्र करना, दार्शनिक साकेश को मिटाना, और सभी
ग़ एवं दार्शनिक सिद्धान्तो को मोतियो की माला के समान एक ही सूत्र में अनुस्यूत कर देना अर्थात् पिरो देना ही स्याद्वाद की उत्पत्ति का रहस्य है। विरमदेह जैन-धर्म ने स्याद्वाद सिद्धान्त की व्यवस्थित रीति से स्थापना करके और युक्ति रागत विवेचना करके विश्व साहित्य म विरोध और विनाश रूप विविधता को सर्वथा मिटा देने का स्तुत्य प्रयत्न किया है ।
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: विश्व के मानव-समूह ने सभी देशों में, 'सभी काली मे और सभी परिस्थितियों में नंनिता तथा सुख-शांति के विकास के लिये समयानुसार