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आचार-शास्त्र एव नीति-शास्त्र के भिन्न भिन्न नियम और परपराएँ स्थापित की है, वे ही धर्म के रूप में विख्यात हुई और तत्कालिक परिस्थिति के अनुसार उनसे मानव-समूह ने विकास, सभ्यता एव शाति भी प्राप्त की, किन्तु कालन्तर मे वे ही परपराएं अनुयायियो के हठाग्रह से साप्रदायिकता के रूप में परिणित होती गई, जिससे धार्मिक-क्लेश, मतावती, अदूरदगिता, हठाग्रह आदि दुर्गुण उत्पन्न होते गये और अखड मानवता एक ही रूप में विकसित नही होकर खंड खड रूप में होती गई, और इसीलिये नये नये धर्मों का, नये नये आचार-शास्त्रो की और नये नये नैतिक नियमो की आवश्यकता होती गई एव तदनुसार इनकी उत्पत्ति भी होती गई। इस प्रकार सैकड़ो पथ और मत मतान्तर उत्पन्न होगये, और इनका परस्पर में द्वद्व युद्ध भी होने लगा। खंडन-मन्डन, के हजारो ग्रथ बनाये-गये। सैकडो वार शास्त्रार्थ हुए और मानवता वर्म के नाम पर कदाग्रह के कीचड में फंसकर सक्लेश मय हो गई। ऐसी गभीर स्थिति मे कोई भी धर्म अथवा मत-मतान्तर पूर्ण सत्य रूप नही हो सकता है, सापेक्ष सत्य, मय हो सकता है, इस सापेक्ष सत्य को प्रकट करने वाली एक मात्र वचन-प्रणालि स्याद्वाद हो सकती है. अतएव स्याद्वाददार्शनिक जगत् में आर, मानवता के विकास में असाधारण महत्त्व रखता है, और इसी का आश्रय लेकर पूर्ण सत्यं प्राप्त करते हुए सभ्यता और संस्कृति का समुचित सविकास किया जा सकता है। . विश्व का प्रत्येक पदार्थ सत् रूप है । जो सत् रूप होता है, वह पर्याय शील होता हुआ नित्य होता है। पर्याय शीलता और नित्यता के कारण से हर पदार्थ अनन्त धर्मों वाला और अनन्त गुणो वाला है,, और अनन्त धर्म गुण शीलता के कारण एक ही समय मे और एक ही साथ उन सभी घर्म-गुणो का शब्दो द्वारा कथन नही किया जा सकता है। इसलिये स्याद्वाद मय भाषा की और भी अधिक आवश्यकता प्रमाणित हो जाती है। "स्यात्" शब्द इसीलिये लगाया जाता है, जिससे पूरा पदार्थ उसी एक अवस्था रूप नहीं समझ लिया जाय, अन्य धर्मों- का भी और, अन्य