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- व्याख्या- कोष ]
२८- स्थावर
जो जीव एकेन्द्रिय है आर केवल शरीर नामक इन्द्रिय से ही अपना - सारा जीवन-व्यवहार चला लेते है, वे नाव स्थावर कहलाते हैं । स्थावर के ५ भेद है; - १ पृथ्वी काय २ अप काय, ३ तेज काय, ४ वायु, काय, ५ वन-स्पति काय,
२९ – स्थित प्रज्ञ'
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जिसकी बुद्धि, मन, और इन्द्रियाँ चचल नहा होती हो, जो विषय और -विकार द्वारा आकर्षित नही होता हो, जो सदैव बिना यश-कीर्ति, और -सन्मान की इच्छा रक्खे ही अनासक्त भाव से स्वं परं हित में सलग्न रहता : हो, वही स्थित प्रज्ञ कहलाता है । ३० - स्थिति बंध
आत्मा के प्रदेशो के साथ दूध पानी की तरह मिले हुए कर्म - प्रदेशों का आत्मा के साथ अमुक समय तक बने रहना, आत्म- प्रदेशो के साथ मर्यादित -समय तक घुले मिले रहना अथवा बधे रहना ही स्थिति वध है । जैसे औषधि का वना हुआ लड्डू कई महिने तक रह सकता है; कोई छः महीने तक और कोई साल भर तक; वैसे ही कोई कर्म अन्तर्मुहूर्त तक रहता है, ता काई ७० करोडाकरोड़ी सागरोपम तक रहता है; तो कोई वर्ष तक । इसी को स्थिति बघ कहते है |
ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, वेदनीय और अन्तराय की, चारो की - उत्कृष्ट स्थिति तीस करोड़ाकरोडी सागरोपम की है । मोहनीय की ७० -करोड़ाकरोडी सागरोपम की है । नाम, गोत्र कर्म की वीस करोड़ करोडी सागरोपम की है और आयु की तेतीस सागरोपम की है ।
जघन्य स्थिति इस प्रकार की है : - वेदनीय की बारह मुहूर्त्त की; नामगोत्र की आठ मुहूर्त्त की और शेष पाँच कर्मों की अन्तर्मुहूर्त्त का है । ३१ – स्पर्शं
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शरीर इन्द्रिय का धर्म और सुख, स्पर्श कहलाता है, और उसके आठ -भेद हैं, वे इस प्रकार है. -१ गुरु, २ लघु, - ६ मृदु, ४ र ५ शीत, ६ उष्ण, ७ स्निग्ध, और ८ रुक्ष