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________________ शब्दानुलक्षी अनुवाद ] १९८ - - निश्चय में कर्म वलवान है । १९९ - कर्मी कर्मों से ही दुख पाता है । २०० -- कर्म मोह से ही उत्पन्न होते है । २०१ - कर्म ही जन्म और मरण का मूल है । २०२ --- कर्म से उपाधि ( नाना विपत्तियाँ) पैदा होती है । [ ३१-५ २०३ - उस कर्म से सयुक्त होता हुआ ही (जीव ) परलोक को जाता है । २०४-कर्म याने आचरण से ही ब्राह्मण होता है और आचरण से ही क्षत्रिय होता है । २०५ -- प्राणी कर्मो से ही डूबते है । २०६—जो लोभ करता है, उसके लिये चारो ओर से वैर वढना है । २०७ - कलह को और युद्ध को दूर से ही छोड दे । २०८ – कषाय का परित्याग करने से वीतराग भाव उत्पन्न होता है । - २०९ – कषाय को अग्नि कहा गया है और ज्ञान, शील, तप को जल वतलाया है । २१० – धीर पुरुष क्यो रात और दिन, इधर उधर उन्मत्त की तरह से पृथ्वी पर घूमते रहते है ? २११ – कायोत्सर्ग से अतीत काल का और वर्तमान काल का प्रायश्चित विशुद्ध होता है । २१२ – जो पुरुष निश्चय करके काम-भोगो का कामी है- इच्छुक है; वह शोक करता है, वह झूरता है, वह ताप भोगता है और वह परिताप को प्राप्त होता है । २१३ - जो काम-भोगो के रस मे गृद्ध है, वे अन्त में असुर काया में - - ( नीच जाति में ) उत्पन्न होते हैं । २१४ – काम - भोगों में अनुराग रखने से (जीव ) क्लेश को सप्राप्त - होता है ।
SR No.010343
Book TitleJainagam Sukti Sudha Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanrushi Maharaj, Ratanlal Sanghvi
PublisherKalyanrushi Maharaj Ratanlal Sanghvi
Publication Year1950
Total Pages537
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size13 MB
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