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[ उपदेश-सूत्र टीका-सब प्रकार के आश्रव-कार्यों को दूर कर, कर्मों का पूर्ण रीति से क्षय कर, विस्तीर्ण तथा सर्वोत्तम, और ध्रुव स्थान "मोक्ष" को प्राप्त किया जा सकता है। ।
(८४). . वित्तण ताणं न लभे पमत्ते।
- उ०, ४, ५ टीकाप्रमादी पुरुप को इस लोक और परलोक मे पाप कर्म जनित दुष्फल से धन भी नही वचा सकता है, धन भी उसकी रक्षा नही कर सकता है, इसलिये प्रमाद छोड़कर धर्म-ध्यान मे अपना समय बिताना चाहिये।
सोय परिणाय चरिज्ज देते।
आ० ३, ८, उ, २ टीका-विषयो में आसक्ति ही संसार का झरना है। ऐसे झरने के स्वरूप को समझ कर और उसे त्याग कर इन्द्रियो और मन का दमन करने वाला सयमी एव वीर पुरुष सयम-मार्ग पर और कर्त्तव्य मार्ग, पर ही चलता रहे। कठिनाइयो, उपसर्गों, परिषहो, विकारो और वासनाओ से घबरावे नही, चल-विचल होवे नही, बल्कि इन पर विजय प्राप्त करता हुवा इष्ट ध्येय की प्राप्ति के लिये दृढता पूर्वक आगे बढ़ता रहे। .
(८६) पासे समिय दंसणे, छिन्दे गेहिं सिणेह च।
उ०, ६, ४ टीका-सम्यक् दर्शनी, आत्मार्थी, ससार की विषमताओं और विचित्रताओ को देखे, इन पर विचार करे, और मूच्छी तथा मोह को हटावे, आसक्ति को दूर करे । - , -