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और कालातीत है । इसमें विपरीत चतव तत्त्व है - यह भी सम्पूर्ण संसार के
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हर क्षेत्र, हर स्थान और हर अश में अनेक
रूप से सुन लोहे के परमा-णुओ के समान पड़ी भूत है । जैसे समुद्र के इसे लगाकर सतह तक जल ही जल भरा रहता है और तल सतह के बीच मे कोई भी स्थान जल से खाली नही रहता है, वैसे ही अखिल विश्व मे कोई भी स्थान ऐमा खाली नही है, जहाँ कि चेतना तत्त्व अनतानत मात्रा मे न हो । जैसे जल के प्रत्येक कण मे जो कुछ तत्त्व और जो कुछ शक्ति है, वैसा ही तत्त्व और वैसी ही शक्ति समुद्र के सम्पूर्ण जल मे है । इसी प्रकार समूह रूपेण पिंडी भूत सम्पूर्ण चेतन तत्त्व मे जो जो शक्तियाँ अथवा वृत्तियाँ है, वे ही और उतनी ही शक्तियाँ एव वृत्तियाँ भी एक एक चेतन ऋण मे अथवा प्रत्येक आत्मा मे है । ये वृत्तियाँ अनत. नत है, स्वाभाविक याना प्राकृतिक है, अनादि है,
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अक्षय है, और तादात्म्य रूप है ।
ये शक्तियाँ प्रत्येक आत्मा के साथ सहजात और महचर धर्म वाली है, सासारिक अवस्था में परिभ्रमण करते समय आत्मा की इन शक्तियो के साथ पुद्गलो का अति सूक्ष्मतम से सूक्ष्मतम आवरण अनिष्ट वासनाओ और सस्कारो के कारण समिश्रित रहता है । इस कारण से ये शक्तियाँ मलीन, विकृत, अविकनित, अर्ध विकमित और विपरीत विकसित आदि नाना रूपो में प्रस्फुटित होती हुई देखी जाती है ।
चेतन तत्त्व सामुहिक पिंड में सबद्ध होने पर भी प्रत्येक चेतन कण का अपना अपना अलग अलग अस्तित्व है । समूह से अलग होकर वह अपना पूर्ण और सागोपाग विकास कर सकता है। जैसा कि हम प्रति दिन देखते है कि मनुष्य, तिर्यंच आदि अवस्थाओ के रूप में विभिन्न चेतन कणो ने अपना अपना विकास कर इन अवस्थाओ को प्राप्त किया है, और यदि विकास की गति नही रुके तो निरन्तर विकास करता हुआ प्रत्येक चेतन कण ईश्वरत्व को
प्राप्त कर सकता है, जो कि विकास और ज्ञान, पवित्रता एव सर्वोच्चता का अति श्रेणी है । "यह परम तम सर्व श्रेष्ठ विकास शील अवस्था" प्रत्येक चेतन- -कण में स्वाभाविक है, परन्तु उसका विकास कर सकना अथवा वकास नहीं कर सकना यह प्रत्येक चेतन रुण का अपने अपने प्रयत्न और
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