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________________ __ १४०] [उपदेश-सूत्र टीका-आत्मार्थी पुरुष काम-भोगों को छोड कर केवल निर्वाण ‘की तरफ-पूर्ण अनासक्त जीवन की तरफ ही अपनी शक्ति लगावे, 'अपना ध्यान लगावे । ( ७६ ) समया लव भूएसु, सनु मित्तसु वा जगे। उ०, १९, २६ टीका-ससार मे शत्रु पर और मित्र पर, सभी प्राणियो पर समता बुद्धि रखनी चाहिये । राग द्वेष रहित भावना रखनी चाहिये, मित्र-भावना और हितैषी-भावना रखनी चाहिये। अहिपासए आय तुले पाहिं ___ सू०, २, १२, उ, ३ टीका-विवेकी पुरुष, प्राणी मात्र को अपनी आत्मा के समान ही समझे। किसी को भी कष्ट न दे। प्राणी मात्र की सेवा करे। (७८) अणुसासण मेव पक्कमे। सू०, २, ११, उ, १ टीका-शास्त्र में कही हुई रीति के अनुसार ही जीवन-व्यवहार चलाना चाहिये । जीवन मे सेवा, सात्विकता, त्याग और सरलता आदि सद्गुणो की ही प्रधानता होनी चाहिये। छिन्न सोए अममे अकिंचणे । उ०, २१, २१, ___टीका-आत्मार्थी को छिन्न शोक, विगत शोक, ममता-मर्ची रहित, अकिंचन यानी अनासक्त और निष्परिग्रही होना चाहिये ।
SR No.010343
Book TitleJainagam Sukti Sudha Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanrushi Maharaj, Ratanlal Sanghvi
PublisherKalyanrushi Maharaj Ratanlal Sanghvi
Publication Year1950
Total Pages537
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size13 MB
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