________________
अवस्थाओं का भी अस्तित्व उस पदार्थ मे है, यह तात्पर्य " स्यात् " शब्द से जाना जाता है। __ "स्यात्' शब्द का अर्थ, "शायद है, सभवत. है, कदाचित् है", ऐसा नहीं है, क्योकि ये सव सशयात्मक है, अतएव "स्यात्" शब्द का अर्थ "अमुक निश्चित् अपेक्षा से" ऐसा सशय रहित रूप है। यह " स्यात् " शब्द सुव्यवस्थित दृष्टिकोण को बतलाने वाला है। मताधता के कारण दार्शनिको ने इस सिद्धान्त के प्रति अन्याय किया है और आज भा अनेक विद्वान् इसको विना समझे ही कुछ का कुछ लिख दिया करते है।
" स्यात् रूपवान् पट" अर्थात् अमुक अपेक्षा से कपड़ा रूपवाला है। इस कथन में रूप से तात्पर्य है, और कपड़े में रहे हुए गध, रस, स्पर्श आदि धर्मों से अभी कोई तात्पर्य नहीं है। इसका यह अर्थ नहीं है कि "कपडा रूप वाला ही है और अन्य धर्मों का निषेध है।" अतएव इम कथन में यह रहस्य है कि रूप की प्रधानता है मार अन्य शेष की गौणता है न कि निषेधता है। इस प्रकार अनेकविध वस्तु को क्रम से एव मुख्यता-गौणता की शैली से बतलाने' वाला वाक्य ही स्याद्वाद सिद्धान्त का अश है । 'स्यात्' शब्द नियामक है, जो कि कथित धर्म को वर्तमान मे मुख्यता प्रदान करता हुआ शेषधर्मों के अस्तित्व की भी रक्षा करता है । इस प्रकार 'स्यात्' शब्द कथित धर्म की मर्यादा, की रक्षा करता हुआ शेप धर्मो का भी प्रतिनिधित्व करता है । जिस शब्द द्वारा पदार्थ को वर्तमान में प्रमुखता मिली है, वही शब्द अकेला ही सारे पदार्थत्व को घेर कर नही वैठ जाय, वल्कि अन्य सहचरी धर्मों की भी रक्षा हो, यह कार्य 'स्यात्' शब्द करता है।
'स्यात् कपडा नित्य है' यहाँ पर कपडा रूप पुद्गल द्रव्य की सत्ता के. लिहाज से नित्यत्व का कथन है और पर्यायो के लिहाज से अनित्य की गौणता है। इस प्रकार त्रिकाल सत्य को शब्दो द्वारा प्रकट करने की एकमात्र शैली स्याद्वाद ही हो सकती है।