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प्रतिदिन के दार्शनिक झगड़ो मे फंसा हुआ सामान्य व्यक्ति न धर्म रहस्य को समझ सकता है और न आत्मा एव ईश्वर सवधी गहन तत्त्व का ही अनुभव कर सकता है । उल्टा विभ्रम में फसकर कपाय का शिकार बन जता है । इस दृष्टिकोण से अनेकान्तवाद मानव-साहित्य में बेजोड विचार-धारा है। इस विचार-धारा के बल पर जैन-धर्म विश्व-धर्मों में सर्वाधिक शाति-प्रस्थायक और सत्य के प्रदर्शक का पद प्राप्त कर लेता है।
यह अनेकान्तवाद ही सत्य को स्पष्ट कर सकता है। क्योकि सत्य एक सापेज वस्तु है। । सापेक्षिक सत्य द्वारा ही असत्य का अश निकाला जा सकता है और इस प्रकार पूर्ण सत्य तक पहुँचा जा सकता है । इसी रीति से मानव-ज्ञान कोष की श्रीवृद्धि हो सकती है, जो कि सभी विज्ञानो की अभिवृद्धि करती है । अद्वैतवाद के महान् आचार्य शंकराचार्य और अन्य विद्वानो द्वारा समय समय पर किये जाने वाले प्रचड प्रचार और प्रवल शास्त्रार्थ के कारण बौद्ध दर्शद सरीखा महान् दर्शन तो भारत से निर्वासित हो गया और लंका, ब्रह्मा, (वसी) चीन, जापान एव तिव्वत आदि देशो में ही जाकर विशेष रूप से पल्लवित हुमा, जव कि जैन-दर्शन प्रबलतम साहित्यिक और प्रचड तार्किक आक्रमणों के सामने भी टिका रहा, इसका कारण केवल "स्याद्वाद" सिद्धान्त हो है। जिसका आश्रय लेकर जैन विद्वानो ने प्रत्येक सैद्धान्तिक-विवेचना में इसको मूल आधार बनाया । ___स्याद्वाद जैन-सिद्धान्त रूपी आत्मा का प्रखर प्रतिभा सपन्न मस्तिष्क है, जिसकी प्रगति पर यह जैन-धर्म जीवित है और जिसके अभाव में यह जैन धर्म समाप्त हो सकता है।
मध्य युग में भारतीय क्षितिज पर होने वाले राजनैतिक तूफानो मे और विभिन्न धर्मो द्वारा प्रेरित साहित्यिक-आधियो मे भी जैन-दर्शन का हिमवलय के समान अडोल और अचल बने रहना केवल स्याद्वाद निद्धान्त का ही प्रताप है । जिन जैनेनर दार्शनिको ने इसे सशयवाद अथवा अनिश्चयवाद कहा है, निश्चय ही उन्होने इसका गभीर अध्ययन किये बिना ही ऐमा लिख