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[ वैगम्य-सूत्र
( २२ ) संवेगेगां अणुत्तरं धम्म सद्धं जणयइ । "
उ०,२९, प्र, ग० टीका-~-सवेग और वैराग्ये से ही श्रेष्ठ वर्म के प्रति, जैन धर्म के प्रति और सात्विक क्रिया मय आचरण के प्रति श्रद्धा उत्पन्न होती है, इन पर विश्वास जमता है ।
( ३) निऐण दिव्य माणुस तेरिच्छिपमु काम भोगेसु निव्वयं हव्व मागच्छद। उ०, २१, द्वि०, ग०
, , , टीका-ससार-मुख के प्रति तटस्थ वृत्ति एवं उदासीन भावना होने पर ही देवता सवधी, मनुष्य सर्वधी और तिर्यच. सबघी कामभोगो के प्रति और इन्द्रिय-मुखो के प्रति वैराग्य भाव पैदा हुआ करते है, इसलिये त्याग-भाव और अरुचि-भाव के लिये तटस्थ भावना की अति आवश्यकता है। . ..
____ 1. ( २४ ..
विरत्ता,उ न लग्गन्ति, . . . . जहा से सुक्क गोलए। .", ..~
उ, २५, ४३ . टीका--जैसे सूखा हुया गीला भीत पर नहीं चिपकत ही विरक्त आत्माओ के-विपय-मुक्त आत्माओं के तथा अनासक्त आत्मानों के भी कर्मों का वचन नही होता है।