________________
,
१३२]
। उपदेश-सूत्र तृप्ति हुईहै और न होने की है। भोग तो अग्नि के समान अनन्त तुष्णा मय है और कभी भी शांत होने वाले नही है।
(४७) पुरिसा! तुममेव तुम मित्तं, किं बहिया मित्त मिच्छसि ।
___आ०, ३, ११८, उ, ३ - टीका-हे पुरुषो । तुम ही तुम्हारे मित्र हो, बाह्य- मित्र की वाछा क्यो करते हो ! यह तुम्हारी आत्मा ही खुद की मित्रे भी है और शत्रु भी है । जव यह आत्मा अच्छे कार्य करती है, तो उससे शुभ कर्मो का बधन पड़ता है, जो कि सुखावह है। और जब बुरे कार्य करती है तो अशंभ कर्मों का बंध पड़ता है जो कि दु.खावह है । अतएव अपनी आत्मा के बराबर दूसरा कोई भी मित्र अथवा शत्रु नही है। तदनुसार बाह्य सहायक का अनुसधान क्यो करते हो ? अपनी आत्मा का ही विचार करो।
(४८) पुरिसा! अत्तामण मेवं अभिणि गिज्झ,
एवं दुक्खा पमुच्चसि।.
___ा , ३, ११९, उ, ३ .. टीका--हे पुरुषो । अपनी आत्मा को ही विषय-कषाय से हटा कर, धर्म-ध्यान और शुक्ल ध्यान मे स्थित कर जीवन-व्यवहार चलाओ। इसी से तुम्हारे दुःखो का नाश होगा। बिना आत्मा पर नियत्रण किये दुःखो का कदापि नाश नही होगा।
___(४९) वंतं इच्छसि आवेडं, सेयं ते मरणं भवे।
उ०, २२, ४३
I