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सूक्ति-सुधा]
[ १३३ टीका-हे आत्मा! यदि तू जीवित रह कर त्यागे हुए भोगों की पुन. इच्छा करता है, इसकी अपेक्षा तो तुम्हारा मरना ही अधिक हितकर है-अधिक श्रेयस्कर है ।
(५०) एगप्पा अजिए सत्तू, कसाया इन्दियाणिय।
उ०, २३, ३८ ।" टीका-वशमें नही किया हुआ स्वछद आत्मा शत्रु रूप ही है। इसी प्रकार कषाय और नो कषाय तथा स्वच्छद इन्द्रियाँ भी अथवा अनियत्रित इन्द्रियाँ और विकार ग्रस्त मन भी शत्रु ही है ।
. (५१) सव्वे आभरणा भारा, सव्वे कामा दुहावहा।
उ०, १३, १६ टीका-सव प्रकार के आभूपण भार रूप है, और सब प्रकार के काम-भोग दुख के देने वाले है। इन से सच्ची शाति या आत्मिक आनन्द मिलना अत्यन्त कठिन है। "
(५२) खण मित्त सुक्खा वहु काल दुरखा - पगाम दुक्खा अणिगाम सुक्खा।
उ०, १४, १३ टीका-सांसारिक भोग, ऐन्द्रिक भोग क्षण मात्र तक ही सुख के देने वाले है, जब कि इनके परिणाम अनन्त काल तक दुःख के देने वाले है। इनका सुख तो अल्प है, और दुख अनन्त एवं विस्तृत है।