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सूक्ति-सुधा]
[ २५ - . ( १५ ),-- सक्के देवाहि वई, एवं हवई बहुस्सुए।
उ०, ११, २३ टीका-जैसे देवताओ का स्वामी इन्द्र देवताओ में शोभा पाता है, वैसे ही बहुश्रुत-ज्ञानी, विनीत होने पर ही जन-समाज मे शोभा को प्राप्त होता है।
' (१६) .. उदही नाणारयण पंडिपुण्णे, एवं हवा . बहुस्सुए।
उ०, ११, ३० । टीका-जैसे समुद्र नानाविध रत्नो से परिपूर्ण होता है, वैसे ही बहुश्रुत-ज्ञानी विनय शील होता हुआ स्वाभाविक रूप से ही नाना गुणो से परिपूर्ण हो जाता है।
- (१७) . . सुय महिहिज्जा उत्तमट्ठ गवेसए ।
उ०, ११, ३२ टीका-उत्तम अर्थ की खोज करने के लिये, आत्मा और परमात्मा के रहस्य को समझने के लिए, आत्मा की अनुभूति के लिये, सूत्र का अध्ययन करना चाहिये। भगवान की वाणी का मनन और चिन्तन करना चाहिये।
(१८) सज्झायंमि रओ सया
द०, ८, ४२