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[ प्रकीर्णक-सूत्र
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अपरिमित और असीम कोसो तक फैला हुआ है। तीर्थकर और ज्ञानी
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भी उसकी सीमाएं नही बतला सकते हैं । किन्तु लोकाकाश परिमित है, ससीम है । लोकाकाश की कुल मर्यादा चौदह राज तक की है ।
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( २७ ) दो दंडा पन्नता तंजहा,
अट्ठा दंडे चेव अगाट्टा दंडे चेव । ठाणां०, २रा, ठा, १ला उ, २२ टीका - पाप दो कारणो से उत्पन्न हुआ करता है - एक तो इन्द्रियो का पोषण करने से एव स्वार्थ भावना की दृष्टि से और दूसरा विना किसी कारण के केवल मूर्खता वश किया जाने से । प्रथम पाप को अर्थ दड पाप कहा जाता है, और दूसरे को अनर्थदंड पाप कहते है । ये दोनो पाप समुच्चय रूप से चारो गति मे पाये जाते है, किन्तु व्यक्तिगत रूप से अनेक विवेकी आत्माऐं इनसे बचते भी है ।
( २८ ) लोगे तं सव्वं दुपडीआरं, जीवा चैव जीवा चेव ।
ठाणां०, २रा ठागा, १, १ला उ,
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टीका -- ससार मे यानी सपूर्ण ब्रह्माड मे या सम्पूर्ण विश्व में पाये जाने वाले सभी पदार्थों को, सभी द्रव्यो को, सभी वस्तुओ और सभी तत्त्वो को केवल दो मूलभूत द्रव्यो मे या दो मूलभूत वस्तुओ मे वाटा जा सकता है । इन दो मूलभूत तत्त्वो के सिवाय और तीसरा कोई तत्त्व नही है । वे दो है : -- जीव और अजीव - अर्थात् चेतन और अड । जीव तत्त्व में या चेतन मे सभी आत्म द्रव्य आ जाते है और अजीव में या जड़ तत्त्व में, धर्मास्तिकाय,
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