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शब्दानुलक्षी अनुवाद ]
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४४ - नरको में दुख वेदना अनत गुणी है |
४५ - यह लोक अनत है, नित्य है, शास्वत् है और विनष्ट नही होता है ।
४६- आत्मा के त्राण के लिये, ( आत्मा को पाप से बचाने के लिये
संयम शील हो ।
-आत्मा के ( निर्मलता के ) लिये समुत्कर्ष शील ( अहकारी ) न हो ।
४८ - जो अतुष्ट है, ( अमतुष्ट है- लोभी है), वह इस दोष से स्वयं दुख है और पर के लिये भी दुख पैदा करता है । लोभ से व्याकुल होता हुआ अदत्त को भी ग्रहण कर लेता हूँ( चोरी कर लेता है ) ।
४९ - ( मुक्त जीव) अतुल सुख सागर को प्राप्त हुए है, अव्यावाच (अऩत) और अनुपम ( सर्व श्रेष्ठ ), ( अवस्था को ) प्राप्त हुए है ५० - काम - भोगो को रोग (पैदा करने) वाले ही देखो ।
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५१ - नही दी हुई वस्तुओ की नही ग्रहण करे ।
५२ - अदीन ( गौरव वाला ) होकर वृत्ति - ( आहार आदि को ) दूढे ५३ - आंतरिक और बाह्य रूप से त्यागी होकर आत्म। सवधा शुद्धि के इच्छा करे | अथवा अनुसधान करे ।
५४ – अन्न के लिये और पानी के लिये अनुगृद्ध ( आसक्ति वाला न हो ।
- ५५ - अन्य के लिये प्रमाद शील होता हुआ, धन की अकाक्षा या अनुमधान करता हुआ पुरुष मृत्यु को और बुढापे को प्राप्त होता है । ५६ - अज्ञान रूपी मोह के विवर्जन से ( त्याग से ) एकान्त मोक्ष- - सुख को प्राप्त करता है |
५७ – अज्ञानी ज्ञान को वालते हुए भी निश्चित अर्थ को नहीं जानते है ।
५८ - बाल प्रज्ञ ( मूर्ख बुद्धि वाला) दूसरे मनुष्य की ही निंदा करता है 1
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