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अपरिग्रह -सूत्र
( ? ) सव्वारम्भ परिच्चागो निम्ममन्त ।
उ०, १९, ३०
टीका - सभी आरंभ - परिग्रहका त्याग करना और निर्ममता तथा अनासक्त भाव से रहना ही "निष्परिग्रह व्रत" है ।
( २ ) मुच्छा परिगहो बुत्तो । द०, ६, २१
टीका -- मूर्च्छा या आसक्ति ही परिग्रह का नामान्तर है। आसक्ति ही भय, मोह, चिन्ता, लोभ आदि पापो की जननी है, विकारो को पैदा करने वाली खान है । मूर्च्छा वाला और आसक्ति वाला चाहे दरिद्री हो या धनवान, दोनो ही मूर्ख है और दोनो ही पतित है; अनएव आसक्ति भाव से दूर रहना ज्ञानी के ज्ञान का एक आवश्यक है ।
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