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[ श्रमण- भिक्षु-सूत्र
( ३० ) उच्चावपसु विसपलु ताई, निस्संसयं भिक्खु समाहिपत्ते ।
सू०, १०, १३
टीका - नाना प्रकार के विषयो मे राग-द्वेप रहित होकर यानी विपयो से सर्वथा मुह मोडकर, जो अहिंसा का पूरी तरह से पालन करता है, निस्सदेह ऐसा पुरुप - साधु है, वह महात्मा है, और वह स्थायी समाधि को प्राप्त करता है ।
( ३१ )
चरे मुणी सव्वतो विष्पमुक्के ।
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सू०, १०, ४
टीका - वाहिर और भीतर सभी वधनो से मुक्त होकर, कषाय से परिमुक्त होकर, योगो से जितेन्द्रिय होकर, पक्षी के समान अनासक्त होकर, मुमुक्षु आत्मा स्वतन्त्र रूप से विचरता रहे । मुक्त-भाव से विहार करता रहे ।
( ३२ )
सदा जप देते. निव्वाणं सधए मुणी । मू०, ११, २२
टीका -- ससार के दुखो से छुटकारा पाने की इच्छा वाला पुरुष सदा प्रयत्नशील रहता हुआ जितेन्द्रिय रहे । सतत् सुकर्मण्यशील रहे। आत्मा के गुणो का विकास करने के लिये जितेन्द्रियता सर्व प्रथम सीढी है । जितेन्द्रियता के अभाव में आत्मा के व्यक्तित्व का विकास नही हो सकता है ।
( ३३ ) दुक्करं तारुण्णे समणत्तणं ।
उ०, १९, ४०