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सूक्ति-सुधा ]
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टीका - जो पुरुष अथवा जो आत्माऐ इस मनुष्य-भव, अथव इस ससार मे आसक्त है, एव काम भोग में मूच्छित है, तथा हिसा आदि पापो से निवृत्त नही है, वे पुरुष
मोहनीय-कर्म का सचय
करते है |
( २६ )
गिद्ध नरा कामेसु मुच्छिया
सू०, २, ८, उ, ३
ही काम भोग मे
टीका - क्षुद्र मनुष्य प्रकृति के जीव ही विषयो मे आसक्त होकर स्थान को प्राप्त करते है । -
मूच्छित होते है । लघु.. नरक आदि यातना -
( २७ )
वज्जए इत्थी विसलित्तं, व कंटगं नश्या ।
सू०, ४, ११, उ, १.
टीका — जैसे विष-लिप्त काटा तत्काल निकाल कर फेक दिया जाता है, उसी प्रकार अनन्त जन्म-मरण को उत्पन्न करने वाले स्त्री रूप काटे को भी तत्काल छोड़ देना चाहिये । यानी पूर्ण ब्रह्मचर्य के साथ जीवन व्यतीत करना चाहिए। जीवन विकास के इच्छुक को सर्व-प्रथम ब्रह्मचर्य व्रत धारण करना चाहिये ।
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( २८ )
नो विहरे सह णमित्थीसु ।
सू०४, १२, उ, १ -
टीका — आत्म-कल्याण की भावना वाला, स्व-पर-सेवा की इच्छा वाला, स्त्रियो के साथ विहार नही करे । स्त्रियो की संगति से सदैव दूर रहे |