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( २२ ) जहाय किस्पाग फलां मणोरमा, एश्रोमा काम गुणाविवागे ।
उ०, ३२, २०
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टीका - जैसे किपाक - फल देखने मे सुन्दर और आकर्षक होते है, खाने मे स्वादिष्ट और मधुर होते है, परन्तु परिणाम मे विप रूप है, प्राण-नाशक है, वैसे ही काम-भोग भी देखने मे सुन्दर, आकर्षक, मनोरम होते है और भोगने में क्षण-भर के लिये थोड़ी देर के लिये आनन्द-जनक, सुख दायक प्रतीत होते हैं, परन्तु फल मे आत्म-घातक, दुर्गति-दायक और अनन्त जन्म-मरण के बढ़ाने वाले होते है ।
( २३ ) कामाणु गिद्धिष्भवं खु दुखं ।
[ कामादि-सूत्र
उ०, ३२, १९
टीका - निश्चय कर के दुखो की उत्पत्ति काम-भोगो मे मूच्छित होने से पैदा होती है । मूर्च्छा ही दुख ह ।
( २४ ) कुररीविवाभोग रसाणु गिद्धा, निरट्ट सोया परिताव मेइ |
उ०, २०, ५०
टीका - काम भोगो में और इन्द्रिय रसो में निरन्तर आसक्त जीव, विकार और वासनाओ मे मूच्छित जीव, निरर्थक शोक करने वाली कुररी नामक पक्षिणी की तरह मरने पर घोर वेदना और असह्य परिताप को ही प्राप्त होता है ।
( २५ ) सन्नाइह काम-मुच्छिया, मोह जंति नरा श्रसंबुडा । सू०, २, १०, उ, १