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अस्ति, स्यान्नास्ति और स्यादवक्तव्य" इन तीन शब्द-समूहो के आधार पर सप्तमगी के रूप में संस्थापित किया है ।
इस प्रकार. --
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( १ ) " उपने वा, विगए वा, धुवे वा, ” नामक अरित प्रवचन,
( २ ) “सिया अत्यि, सिया नत्थि, सिया अवत्तव्व' नामक आगम
वाक्य,
( ३ ) " उत्पाद व्ययधीव्य युक्त सत्" नामक सूत्र,
( ४ ) " स्यादस्ति, स्यान्नास्ति, स्यादवक्तव्य" नामक संस्कृत वाक्य, ये सब स्याद्वाद सिद्धन्त के मूत्तं वाचक रूप है, शब्द रूप कथानक है और भाषा रूप शरीर है । स्याद्वाद का यही वाह्य रूप है । स्याद्वाद के सवध मे विस्तृत लिखने का यहां पर अवसर नही है, अतएव विस्तृत जानने के इच्छुक अन्य ग्रंथो से इस विपयक ज्ञान प्राप्त करे । इस प्रकार विश्व - साहित्य में जैन दर्शन द्वारा प्रस्तुत अनेकान्तवाद अथवा स्याद्वाद एक अमूल्य और विशिष्ट योगदान है, जो कि सदैव उज्ज्वल नक्षत्र के समान विश्व साहित्याकाश मे अतिज्वलत ज्योति के रूप में प्रकाशमान होता रहेगा, और विश्व धर्मों के संघर्ष में चीफ जस्टिस यानी सौम्य प्रधान न्याय मूर्ति के रूप में अपना गौरव शील स्थायी स्थान बनाये - रक्खेगा ।
कर्मवाद और गुणस्थान
जैन - दर्शन ईश्वरीय शक्ति को विश्व के कर्ता, हर्त्ता, और धत्ती के रूप में नही मानता है, जिसका तात्पर्य ईश्वरीय सत्ता का विरोध करना नही है |" अपितु आत्मा ही कर्ता है और आत्मा ही भोक्ता है, इसमें नियामक का कार्यं स्वकृत कर्म ही करते है । कर्म का उल्लेख वासना शव्द से, सस्कार शब्द से और प्रारब्ध शब्द से एव ऐसे ही अन्य शब्दो द्वारा भी किया जा -सकता है । ये कर्म अचेतन हैं, रुपी है, पुद्गलो के अति सूक्ष्मतम से सूक्ष्मतम अंश से निर्मित होते हैं । वे विश्व व्यापी होते है । कर्म-समूह अचेतन