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और जर होने पर भी प्रत्येक आत्मा में रहे हुए विकारो और कपायो के वलपर "औपधि के गुण दोपानुसार" अपना फल यथा समय मे और यथा स्प म दिया करते है।
इस फर्म-सिद्धान्त का विशेष स्वरूप कर्म-वाद के ग्रंथो से जानना - चाहिए । यहाँ तो इतना ही पर्याप्त होगा कि कम-वाद के बलपर जैन-धर्म
ने पाप-पुण्य की व्यवस्था का प्रामाणिक और वास्तविक सिद्धान्त कायम किया है । पुनर्जन्म, मृत्यु, मोक्ष आदि स्वाभाविक घटनाओ की सगति-कर्म-सिद्धान्त के आधार पर प्रतिपादित की है । सासारिक अवस्था में आत्मा सवधी सभी दशाओ और सभी परिस्थितियो मे कर्म-गक्ति को ही सब कुछ बतलाया है। फिर भी आत्मा यदि सचेत हो जाय तो कर्म-शक्ति को परास्त करके अपना विकास करन मे स्वय समर्थ हो सकती है। ___कर्म-सिद्धान्त जनता को ईश्वर-कर्तृत्व और ईश्वर-प्रेरणा जैसे अधविश्वास से मुक्त करता है और इसके स्थान पर मात्मा की स्वतत्रता का, स्व-पुरुपार्थ का, सर्व-शक्ति सपन्नता का, और आत्मा की परिपूर्णता का ध्यान दिलाता हुआ इस रहस्य का उल्लेख करता है कि प्रत्येक आत्मा का अन्तिम ध्येय और अतिमतम विकास इश्वरत्व प्राप्ति ही है ।।
जैन-धर्म ने प्रत्येक मासारिक आत्मा की दोप-गुण सबधी और ह्रासविकास सबधी आध्यात्मिक-स्थिति को जानने के लिये, निरीक्षण के लिए
और पराक्षण के लिए "गुणस्यान" के रूप में एक आध्यात्मिक जांच प्रणालि अथवा माप प्रणालि भी स्थापित की है, जिसका सहायता से समीक्षा करने पर और मीमासा करने पर यह पता चल सकता है कि कौनसी सांसारिक आत्मा कपाय आदि की दृष्टि से कितनी अविकास-नील है और, कौनसी आत्मा चारित्र आदि की दृष्टि से कितनी विकास शील है ?
यह भी जाना जा सकता है कि प्रत्यक सामारिक आत्मा म मोह की, गाया फी,ममता की, तृष्णा की, क्रोध की, माT को और लोम आदि वनियो की गया स्थिति है ? ये दुर्वृत्तियां कम मात्रा में है अथवा अधिक मात्रा में ? ये उदय अवस्था में है ? अथवा उपशम अवस्था में है ? इन वृत्तियों का क्षय,